सनातनधर्मानुयायी श्राद्ध से अपरिचित नहीं है। शास्त्रों में पंचमहायज्ञों में से पितृयज्ञ के अन्तर्गत श्राद्धकर्म कर्मणीय माने गए हैं। श्रद्धापूर्वक अपने पितरों के निमित्त जो भी कर्म किया जाता है उसे श्राद्ध कहते हैं ।
" श्रद्धया पितॄन् उद्दिश्य विधिनां क्रियते यत्कर्म तत् श्राद्धम् ।। "
हिन्दू धर्म में एक अत्यंत सुरभित पुष्य है कृतज्ञता की भावना जो कि बालक में माता पिता के प्रति स्पष्ट परिलक्षित होती है। हिंदू धर्म का व्यक्ति अपने जीवन माता पिता की सेवा तो करता ही है उनके देहावसान के बाद भी उनके कल्याण की भावना करता है एवं उनके अधूरे शुभ कार्यों को पूर्ण करने का प्रयत्न करता है श्राद्ध विधि इसी भावना पर आधारित है।
ब्रह्मपुराण अनुसार ----"देश काल और पात्र में श्रद्धा पूर्वक पितृ गुणों के उद्देश्य से ब्राह्मणों को जो भी दिया जाए वह श्राद्ध है।"
महर्षि बृहस्पति अनुसार,---" दूध ,शहद एवं घी से युक्त अच्छी तरह परिष्कृत कर निर्मित व्यंजन आदि को श्रद्धा पूर्वक दिया जाए वही श्राद्ध है। "
महर्षि पराशर अनुसार----। "देश काल और पात्र में हविष्यादि विधि के माध्यम से जो भी कर्म तिल, यव और द्रव्य आदि द्वारा मंत्रों से श्रद्धा पूर्वक संपन्न किया जाए उसे श्राद्ध कहते हैं। "
श्राद्ध विवेक अनुसार --- " पितृ आदि देवताओं के उद्देश्य से वेद बोधित सुपात्र को आलम्भनपूर्वक वस्तु का दान विशेष ही श्राद्ध है। "
श्राद्ध कल्प लता एवं श्राद्ध कल्पतरु अनुसार ---" पितरों के उद्देश्य से श्रद्धा पूर्वक द्रव्य का जो दान किया जाता है और उसे ब्राह्मणों द्वारा स्वीकार करने तक की प्रक्रिया को श्राद्ध कहते हैं। "
होम ( अग्नौकरण ) , पिंडदान ,पितृ तर्पणएवं ब्राह्मण भोजन श्राद्ध के मुख्य कर्म हैं। उपर्युक्त परिभाषाओं से श्राद्ध के निम्नलिखित प्रमुख लक्षण परिलक्षित होते हैं :-
1 श्रद्धा :-श्राद्धकर्ता की श्रद्धा ही श्राद्ध का प्रमुख लक्षण है। जैसा कि कहा गया है:-
" श्रद्धया यत्क्रियते दीयते व तत् श्राद्धम् । "
" श्रद्धा माता तु भूतानां श्रद्धा श्राद्धेषु शस्यते ।" <
2 पितरोद्देश्य :-श्राद्ध में जो भी कर्म किया जाता है पितरों के उद्देश्य से अर्थात उनके निमित्त किया जाता है सामान्यत: श्राद्ध प्रपितामह, पितामह एवं पिता जिनकी मृत्यु हो चुकी है कि निमित्त किया जाता है उक्त सभी परिभाषाओं में पितरों के उद्देश्य से किया किया जाने वाले श्रद्धा पूर्वक कर्म को ही श्राद्ध कहा है।
3 ब्राह्मण भोजन :- श्राद्ध में ब्राह्मण भोजन प्रमुख कारण है। ब्राह्मण कैसा होना चाहिए ? सुपात्र होना चाहिए। श्राद्ध में भोजन कैसा हो ? इस का भी उल्लेख उक्त शास्त्रों में मिलता है मिरीचि के अनुसार -- श्राद्ध का भोजन श्राद्ध कर्ता के लिए रुचिकर होना चाहिए। बृहस्पति के अनुसार --श्राद्ध के भोजन में परिष्कृत पकवान होने चाहिए जो दूध, शहद और घी से निर्मित हो। वस्तुतः श्राद्ध का भोजन ऐसा हो जो न केवल स्वयं के लिए रुचिकर हो और जिसके निमित्त श्राद्ध किया जा रहा है उनके लिए तथा जिस ब्राह्मण को भोजन करवाया जा रहा है उसके लिए भी रुचिकर होना चाहिए।
4 दान :- दान के संबंध में पद्म पुराण में निर्देश है कि कृपणता को छोड़कर पितरों की प्रसन्नता का संपादन करते हुए जो वस्तु में ब्राह्मणों को ,स्वयं को तथा पिता को भी प्रिय हो रही वस्तु दान करें।
5 दान की स्वीकार्यता :-श्राद्ध कर्म में पितरों के उद्देश्य से जो भी दान आदि दिया जाता है उसका ब्राह्मण द्वारा ग्रहण किया जाना भी श्राद्ध का प्रमुख अंग है।
6 विधि की प्रमुखता :- श्राद्धकर्म विधिवत किया जाना चाहिए इसे शास्त्रोक्त विधि से ही संपन्न किया जाना चाहिए। इसे मंत्र होम, तर्पण सपिण्ड आदि के द्वारा संपन्न किया जाना चाहिए तथा इसमें तिल कुशा आदि आवश्यक वस्तुओं को प्रयोग किया जाना चाहिए
शास्त्रों में श्राद्ध का महत्त्व दो प्रकार से बताया गया है प्रथम श्राद्ध को करने से क्या-क्या लाभ होते हैं और द्वितीय श्राद्ध न करने से क्या क्या हानि होती है ?
जहां तक श्राद्ध से होने वाले लाभों का प्रश्न है तो यह भी दो प्रकार से होते हैं पितरों को लाभ और श्राद्ध कर्ता को लाभ । पितरों को श्राद्ध से क्या-क्या लाभ होते हैं इसका वर्णन करते हुए महर्षि अत्रि लिखते हैं कि पितर श्राद्ध में उपयुक्त ब्राह्मण को खिलाए गए भोजन के ग्रासों से दैदीप्यमान तेज से युक्त होतें हैं और नरक में स्थित होते हुए भी उस से निकल जाते हैं।
इस संबंध में याज्ञवल्क्य लिखते हैं कि बसु, रुद्र और आदित्य के श्राद्ध देवता पितर हैं। यह पितृ श्राद्ध से तर्पित होकर पितरों को तृप्त करते हैं और मनुष्यों के पितामह( पितर) श्राद्ध कर्ता को दीर्घायु ,संतति, धन ,विद्या ,स्वर्ग ,मोक्ष, सुख एवं राज्य प्रदान करते हैं।